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ब्लैकबोर्ड- आग पर बसी बस्ती, हर घर में एक-दो मौत:बार-बार घर बदलना पड़ रहा, लोगों में खौफ- कहीं आग से दीवारें न फट जाए

सोचिए। आपके घर के नीचे आग जल रही है। जमीन खोखली हो रही है। वह किसी भी दिन धंस जाएगी और आप आग के कुएं में जलकर स्वाहा हो जाएंगे। सोचकर भी रूह कांप गई न! झारखंड के झरिया के कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूर इसी परिस्थिति में रहते हैं।

कोयला खदानों के मजदूरों की जिंदगी को करीब से जानने, उनकी जिंदगी का स्याह पक्ष समझने के लिए मैं दो दिन बस्ती में रही, उनके साथ कोयला खदान में भी गई।

झरिया (धनबाद) का गांव केंदुआ। चारों ओर कोयले की ढेरियों से उठता धुआं। आसमान से गिर रही सूरज की तपिश, जिसमें आंखें तक नहीं खुल रहीं। जमीन के अंदर जल रही आग की गर्मी जूते को चीरकर पैर जला रही है। कई-कई जगहों पर तो धुआं उठ रहा है। कारण साफ- जमीन के अंदर आग जो लगी हुई है।

14 साल की नंदिनी मुझे कच्चे पहाड़ के एक मुहाने पर ले गई। मुहाने से पार निगाह गई तो सामने एक डरावना मंजर है। चारों ओर नंगे पहाड़ और घाटी। पथरीली घाटी के तल में JCB मशीनों से काम चल रहा है। ऊपर से देखने पर कोयला खदान से निकलते हुए लोग चींटियों से दिखाई दे रहे हैं।

घाटी के थोड़ा ऊपर भी एक कोयले की खदान है, जिसे मिट्‌टी के पहाड़ को कुतर-कुतर कर बनाया गया है। उसकी तरफ इशारा करके नंदिनी कहती है- ‘कुछ महीने पहले मेरा घर वहां पर था। भरी-पूरी बस्ती थी। वहां रहने में बहुत मजा आता था, क्योंकि पेड़-पौधे, मंदिर सब थे वहां। फिर एक दिन कोयला खदानों की आग हमारी बस्ती तक पहुंच गई और मेरा घर आग से फट गया। हमें उस जगह को छोड़ना पड़ा, अगर नहीं हटते तो हम सब भी जल जाते। फिर हमने नया घर बनाया, अब वहां से भी कंपनी वाले यह कहकर हटा रहे हैं कि यहां भी जमीन के नीचे आग है।’

झरिया के जमीन के अंदर लगी सालों पुरानी आग इसे अंदर ही अंदर खोखला कर रही है। आग शहर की तरफ आ रही है, इसके बावजूद लोग अपने घरों में रह रहे हैं। वह भी जब तक कि आग से उनके घर की दीवारें फट न जाएं।

आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि लोग इस जगह को छोड़ नहीं रहे हैं? नंदिनी ने कहा- ‘मां कहती हैं कि भूख की वजह से हम यहां बैठे हैं। समाज के बाहर हमारे लिए काम नहीं है। हमें कोयला चोर नाम देकर बेदखल कर दिया गया है।’

नंदिनी लगातार बोल रही है। मैं ऊंचाई से नजारा देख रही हूं। चारों ओर कोयलों की ढेरियों से उठ रहे आग के धुएं में सब धुंधला दिखाई दे रहा है। मजदूर खदान से लाए कोयले को जलाकर उसे बेचने लायक बना रहे हैं। यह लोग तीन से चार दिन में एक बोरा कोयला भरते हैं, जिसे बाजार में 300 से 800 रुपए तक बेचते हैं।

झारखंड में दो तरह की कोयला खदानें हैं। एक सरकारी लाइसेंस युक्त, दूसरी गैर कानूनी। इन खदानों में जो लोग गैर कानूनी तौर पर काम करके कोयला तोड़ते हैं, उन्हें कोयला चोर कहा जाता है। इनकी संख्या एक लाख के करीब है।

कोयला चोर की जिंदगी जीना तो मेरे जैसों के लिए असंभव है, लेकिन एक दिन यहां बिताकर जो हालात मैंने देखे, उससे लगता है कि इतनी सस्ती इंसानी जिंदगी शायद ही कहीं होगी।

नंदिनी मुझे चुप देखकर कहती हैं- ‘यहां चारों ओर आग लगी हुई है। नाना तो कहते हैं कि यह जगह लंका की तरह है। वहीं लंका जिसे हनुमान जी ने आग से जला दिया था। आप जहां बैठी हैं, उसके नीचे भी आग है। आए दिन लोग धंस जाते हैं। मेरी उम्र की मेरी दोस्त चंदा भी खदान में धंसने से मर गई।’

वह मुझे अपने घर ले गई। उसकी मां जमीन पर बैठकर खाना खा रही थी। घर में सिर्फ एक चारपाई बिछी है। उसके अलावा कोई और सामान नहीं। वह मेरे बैठने के लिए किसी से कुर्सी मांग कर लाती है। घर बुरी तरह से तप रहा है। नंदिनी की मां गुड़िया देवी की थाली में पानी जैसी पतली दाल और हाथ में चार सूखी रोटियां हैं। वह चल-फिर नहीं पाती हैं। डिप्रेशन की मरीज हैं। उन्हें थायराइड, बीपी और डायबिटीज भी है।

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